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सारा आकाश-राजेंद्र यादव (उपन्यास का विश्लेषण)

राजेंद्र यादव जी स्वातंत्र्योत्तर काल के युवा साहित्यकारों में अग्रणी हैं ।उनकी रचनाएं स्वातंत्रोत्तर युवा पीढ़ी की मानसिकता  को उदघाटित करने में सक्षम है ।उन का प्रथम उपन्यास "सारा आकाश" आजाद भारत की युवा पीढ़ी की त्रासदी और भविष्य के सपने का नक्शा है । इसके संबंध में यादव जी ने खुद लिखा है -"सारा आकाश मुख्यतः निम्न मध्यवर्गीय युवक के अस्तित्व के संघर्ष की कहानी है ।आशाओं महत्वकांक्षाओं और आर्थिक सामाजिक, संसारिक सीमाओं के बीच चलते द्वन्द्व- हारने -थकने और कोई रास्ता निकालने की बेचैनी की कहानी है।"- राजेंद्र यादव -सारा आकाश पृष्ठ 12

आधुनिक युवा वर्ग के हारने थकने और कोई मार्ग न ढूंढ निकालने की बेचैनी की कथा का रूपायन भी इसमें हुआ है । इसका अंग्रेजी अनुवाद 'Strangers in the roof' के नाम से हुआ है, क्योंकि जब भी नायिका प्रभा और नायक समर बोलते हैं तो रात के एकांत में खुले आसमान के नीचे घर की छत पर ही बोलते हैं।

मिल गया सारा आकाश -नवभारत टाइम्स

प्रभात गौड़-
"राजेंद्र यादव की '
सारा आकाश' कहानी है लोअर मिडल क्लास के एक ऐसे युवक की, जो जिंदगी में कुछ हासिल करना चाहता है। 'सारा आकाश' सामाजिक बंधनों के तले घुट-घुटकर मरने को मजबूर एक ऐसी औरत की भी कहानी है, जिसकी घुटन को सहनशीलता का नाम दे दिया जाता है और एक ऐसी कहानी भी, जो बरसों से रूढ़िवाद में जकड़ी भारतीय संस्कृति पर जबर्दस्त चोट करती है। 

कहानी का मुख्य पात्र समर एक कॉलेज स्टूडेंट है। परिवार में माता-पिता के अलावा बड़ा भाई और उसकी प्रेग्नेंट वाइफ और पति से अलग हो चुकी बहन हैं। अपनी जिम्मेदारियों का हवाला देते हुए समर के पिता उसकी शादी कर देते हैं, लेकिन जिंदगी में कुछ बनने के सपने देखने वाला समर अपनी पत्नी प्रभा को मंजिल हासिल करने की राह में एक रोड़ा समझने लगता है। हालत यह हो जाती है कि ईगो और कुछ टाली जा सकने वाली स्थितियों के कारण सुहागरात में अपनी पत्नी के साथ समर की कोई बातचीत तक नहीं होती। धीरे-धीरे वक्त गुजरता जाता है और समर व प्रभा आपस में बिना बातचीत किए अजनबियों की तरह जिंदगी गुजारते रहते हैं।

कहानी के एक और पात्र शिरीष के माध्यम से लेखक ने भारतीय संस्कृति, संयुक्त परिवार, पूजा, व्रत, पाखंड, पुराण आदि पर जोरदार कटाक्ष किए हैं। सच्ची घटना पर आधारित इस उपन्यास की लोकप्रियता को देखते हुए 1969 में बासु चटर्जी ने इस पर 'सारा आकाश' नाम से ही एक फिल्म भी बनाई।"

 

सारा आकाश-राजेंद्र यादव (कथानक परिचय)

"सारा आकाश" राजेंद्र यादव जी का पहला उपन्यास भी है और तीसरा भी। सन् 1952 में यह "प्रेत बोलते हैं "नाम से छपा था और बाद में लगभग 10 साल बाद संशोधित रूप में इसका पुनर्लेखन हुआ तो इसका नाम सारा आकाश रखा गया । यह उपन्यास राजेंद्र जी की औपन्यासिक यात्रा का मील का पत्थर है ।प्रसिद्ध उपन्यास निम्न मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार की विसंगतियों को उजागर करने में सक्षम है। सारा आकाश दो खंडो में बटा हुआ उपन्यास है । इसके पूर्वार्ध में "बिना उत्तर वाली 10 दिशाएं" समाविष्ट हैं और उत्तरार्ध में "प्रश्न पीड़ित दस दिशाएं" व्याप्त हैं ।

समर और प्रभा को केंद्र में रखकर उपन्यास का ताना बाना बुना गया है। समर इंटर की परीक्षा की तैयारी कर रहा है। वह अब शादी करना और किसी भी प्रकार का उत्तरदायित्व संभालना नहीं चाहता है। एम०ए० करना और अच्छी से अच्छी नौकरी हासिल करना उसका लक्ष्य है। वह शादी और पत्नी को अपनी महत्वकांक्षाओं और सपनों में बाधा डालने वाली चीज समझता है । समर अपने मां-बाप और उनके सगे-संबंधी के दबाव से शादी करने को तैयार होता है । उसकी पत्नी प्रभा शिक्षित नारी है। दसवां तक पढ़ी है। वह भी शादी करना नहीं चाहती थी। वह खूब पढ़ लिखकर गांव में जाकर स्त्रियों को पढ़ाना, सारे हिंदुस्तान पैदल 'टूर' करना , गुंडे-बदमाशों या जंगली जानवरों से अपनी रक्षा करने के लिए लाठी और छुरी चलाना सीखना चाहती थी।

समर - प्रभा के सुहाग की रात से उपन्यास का आरंभ होता है। सुहाग रात में जब समर कमरे में आया तब प्रभा निर्विकार होकर चुपचाप खड़ी थी। समर चाहते हैं कि प्रभा उसका आदर सम्मान करें और उनका पांव पकड़े । लेकिन प्रभा ने ऐसा कुछ नहीं किया। प्रभा के व्यवहार से समर क्रुद्ध हुए। वह उसके इस व्यवहार को शिक्षित नारी का दम्भ समझता है। वह पत्नी से अलग छत पर रात बिताता है। तब से 1 साल तक समर और प्रभा ने एक दूसरे से बातचीत नहीं की।

समर के घर की स्थिति बहुत दूरितपूर्ण है। पिता जी को सिर्फ ₹25/- पेंशन मिलते हैं। महंगाई भत्ता सब मिलाकर ₹99/- भाईसाहब को मिलते हैं ।अम्मा को कई बीमारी से परेशान है । दो - तीन बच्चे पढ़ने को हैं। अमर मैट्रिक में और छोटा कुंवर अभी छठे में अध्ययन करते हैं। घर की सारी बात भाई साहब पर निर्भर है ।बाबूजी चाहते हैं समर भी कुछ काम करके भाई साहब का हाथ बटाए ।

मुन्नी की शादी 16- 17 की उम्र में हुई थी। ससुराल में सास और पति मिलकर उस पर अत्याचार करते हैं। उसे वहां नौकरानी की तरह जीवित रहना पड़ा। एक दिन सारे शरीर पर बेंतों के फूले हुए नीले निशान लेकर मुन्नी वापस घर आई। अब दो-तीन साल से मुन्नी अपने घर में है ।

प्रभा को पहले दिन से ही बहुत कठिनाइयां सहनी पड़ी। प्रभा तो सुंदर सुशील और पढ़ी-लिखी रमणी थी इसलिए भाभी को प्रभा से जलन है। 2 दिन के बाद भाई आकर प्रभा को मायके ले गया। समर फिर उन्हें लेने नहीं गया। 6 महीने के बाद अमर जाकर उसे वापस लाया ।प्रभा वापस आने के बाद भी समर के कमरे में सोना नहीं चाहती क्योंकि वह बोर्ड के इम्तिहान के वक्त उसे तंग करना नहीं चाहती है। लेकिन समर इसे दंभ समझते हैं ।

भाभी को बच्चा होने से घर का सारा काम प्रभा को करना पड़ा। घर वाले प्रभा से नफरत करने लगते हैं केवल मुन्नी ही प्रभा से सहानुभूतिपूर्ण बर्ताव करती है। प्रभा घूंघट या पर्दा नहीं करती थी और काम से छुटकारा मिले तो ऊपर छत पर जाकर ताजी हवा लेती थी। घर वाले प्रभा के इस व्यवहार से नाराज हो उठते हैं। भाभी के बच्चे के नामकरण के दिन प्रभा ने गणेश जी की पूजा की गई मिट्टी के ढेले को सादा समझकर जूठे बर्तन मांज लिया। घर में हलचल मचा सबकी बातें सुनकर समर को भी क्रोध आया। उसने प्रभा को तमाचा मारा। सात-आठ महीने में पहली बार बात की वह भी तमाचे से ।

समर दूसरे डिविजन में इंटर की परीक्षा पास किया ।वह घर वालों की बातों से तंग आकर काम की तलाश में निकलता है । दोस्त दिवाकर के सिफारिश से उसे एक प्रेस में प्रूफ रीडिंग का काम मिलता है साथ ही कॉलेज में भर्ती होता है। बीचोबीच समर और प्रभा के बीच की गलतफहमी दूर हो गई। 1 साल के बाद प्रभा और समर के बीच बातचीत हुई। नौकरी मिलने के बाद घर में उसका अपना स्थान मिला। इसके बीच मुन्नी को पति साथ ले गया । वह अनमने भाव से पति के साथ चली गई।

समर के ऊपर घर के सब लोग सहारा खोजते हैं लेकिन समर उन्हें कमा के देने में हार जाता है। उन्हें प्रेस वाले तनख्वाह नहीं देते। वह ₹75/- लिखकर ₹60/- ही देने की बात करते हैं ।इस बात पर झगड़ा होता है और  समर नौकरी छोड़ देता है।  समर नौकरी छूट जाने की बात घर में बताते हैं। एक-दो कहकर बाबूजी और उनके बीच झगड़ा शुरु होता है । बाबूजी उसे घर से निकल जाने को कहते हैं । समर जाने की तैयारी करते हैं। सुबह बाहर निकले तो मुन्नी की मृत्यु की खबर आ गई। समर व्यथित होकर निर्विकार होकर चला जाते है। रेलवे स्टेशन पहुंचते ही आत्महत्या करने को सोचते हैं या इरादा करते हैं लेकिन वह कर नहीं पाते हैं। उसे मालूम होता है कि उसके सामने "सारा आकाश" खुला है।

प्रभा:

 

"सारा आकाश" में प्रभा स्वतंत्र भारत के गिने चुने शिक्षित नारियों का प्रतिनिधि है। उसने दसवां तक शिक्षा पाई है। घरवाले उनके सारी करतूतों को शिक्षित होने का दंभ मानते हैं ।सुहागरात से ही यह बात जाहिर हो सकती है। समर का कथन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है -"घमंड मैं अपने सगे से सगे का भी नहीं सकता, चाहे कितना ही खूबसूरत हो या पढ़ा लिखा।" सुंदर सुशील और पढ़ी लिखी नारी प्रभा को घर वाले नफरत की दृष्टि से आंकते हैं ।प्रभा सब कुछ सहने को तैयार है। भारतीय नारी के समान उपन्यास में वह त्याग की प्रतिमूर्ति दिखती है ।प्रभा को दोषी ठहराने के लिए पहले दिन खाना बनाते वक्त भाभी मुट्ठी भर नमक खाने में डाल देती है ।लेकिन प्रभा सब कुछ सह लेती है। प्रभा घर में परंपरा का निर्वाह नहीं करती थी। उन दिनों के परिवारों में बहु पर्दा रखती थी। प्रभा इसके ख़िलाफ़ थी, पढ़ी-लिखी प्रभा अपने व्यक्तित्व को खो कर जीने को विवश है। 1 साल के अंतर प्रभा ने एक बार ही अपनी प्रतिक्रिया दिखाई की -"1 साल से कभी आपको चिंता हुई की मरती है या जीती है मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ?" प्रभा कभी भी पढ़ने लिखने का घमंड नहीं दिखाती है ।सुशिक्षित प्रभा गांव में जाकर स्त्रियों को पढ़ाना चाहती थी ,लेकिन उनके तकदीर में यह लिखा नहीं था प्रभा शब्दों में "मुसीबत सिर्फ रुपयों की ही तो नहीं है। असली मुसीबत तो यह है कि हमारे सपने बहुत ऊँचें हैं ,भविष्य के नक्शे बिल्कुल अलग हैं।" उपन्यास के अंत में आने पर समर प्रभा को देवी मानने लगते हैं । समर सोचते हैं "यह किसी स्वर्ग की शाप - भ्रष्टा है जो अपना समय गुजारने यहां चली आई है ।

प्रभा मुसीबतों के सामने सिर नहीं झुकाती है ।"मुझे तुम अभी नहीं जानते। मुझमें बहुत ज्यादा जीवन शक्ति है। इससे भी ज्यादा मुसीबतों में मैं विचलित नहीं हो सकती । विवाह से पहले बड़ा डर लगा करता था कि आगे जाने कैसा होगा । लगता था किसी भी मुसीबत को मैं सह नहीं पाऊंगी ।अब जब देख लिया है कि तकलीफ किसे कहते हैं तो लगता है बस इसी के लिए इतना डरना था ?" इन वाक्यों से प्रभा का धैर्य  ऊर्ज सब ज्वलित उठती है ।समस्त संघर्षों से घिरे हुए वातावरण में भी प्रभा ही एक शक्ति है जो जिजीविषा का संदेश देती है।

समर:

सारा आकाश उपन्यास का नायक समर आजाद भारत की नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है। एक निम्न मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार में उनका जन्म हुआ। उनमें अच्छी नौकरी हासिल करने की ललक थी। घर के उत्तरदायित्व से पूर्णत: विमुख थे। उनकी मान्यता इस प्रकार है कि "देश को साहसी और कर्मठ युवकों की जरूरत है ।" वे शादी तक को बेकार मानते हैं । लेकिन बाबूजी उन्हें शादी करने के लिये मजबूर कर रहे हैं । वे सोचते हैं -"कैसा बोझिला प्रारंभ है जिंदगी का! मन होता है सबकुछ छोड़ छाड़ कर कहीं दूर अंजानी जगह भाग जाऊं।" यह उनके पलायनवादी दृष्टिकोण का परिचायक है। शादी और परिवार के संबंध में उनका विचार द्रष्टव्य है कि "हाय मेरी वह सारी महत्वकांक्षाएं ,कुछ बनकर दिखलाने के सपने को यूंही घुट घुट कर मर जाएंगे रात रात भर की नींद और खूब देर देकर पाले हुए सारे भविष्य के सपने ,अब दम तोड़ देंगे ।विवाह को समर एक परीक्षा समझते हैं ।उन्हें भय है कि इस परीक्षा में वे हार जाएंगे । प्रभा तो दसवीं पास है और समर उससे कोई संबंध रखना नहीं चाहते । वे शादी को अपने विकास में बाधा मानते हैं कि "हम क्यों एक-दूसरे के लिए बाधा बने बाधाएं कभी-कभी सुंदर रूप धर कर सामने आती हैं। उनमें न भरमाना ही बुद्धिमानी है।"

नारी के बारे में समर की अपना निजी दृष्टिकोण है । वे नारी को पुरुष की सबसे बड़ी कमजोरी समझते हैं । उनकी राय में "नारी अंधकार है ,नारी मोह है, नारी माया है, नारी देवत्व की ओर उठते मनुष्य को बांधकर राक्षसत्व के गहरे अंधे कुंओं में डाल देती है। नारी पुरुष की सबसे बड़ी कमजोरी है । इस कथन से पता चलता है कि नारी संबंधी मध्यकालीन चिंतन उस पर हावी है। समर मामूली पुरुषों की तरह व्यवहार करने से हिचकिचाता है और नारी संबंधी मध्यवर्गीय खोखलेपन से प्रणीत है । वह अपनी पत्नी के सामने झुकना नहीं चाहता है । उनका विचार है कि नारी ने बड़े - बड़ों को उंगलियों पर नचाया है ।

समर अपने आप को अकेला महसूस करता है कि "इस बीहड़ पथ पर मैं अकेला हूं नितांत अकेला।" समर कमाई और पढ़ाई को आगे बढ़ाना चाहता है लेकिन यह हो नहीं पाता । फलस्वरुप वह अपने आप को बेकार समझने लगता है। एक तरह की निराशा का भाव उनमें दिखते हैं "एक गहरी निराशा ,सुक्ष्म किंतु व्यापक थकान मेरी रग-रग में बैठ गई है।--------निराशा और हताशा में अकेला पड गया हूँ।"

प्रभा के मायके जाने के बाद समर की निराशा बढ़ जाती है। मन ही मन वह प्रभा को चाहते हैं ।धीरे-धीरे प्रभा के प्रति नर्म व्यवहार होने लगता है। अंत में समर निष्कर्ष निकालते हैं "यह प्रभा सच ही बहुत गहरी और समझदार लड़की है ।" आजादी के बाद निम्न मध्यवर्गीय परिवार में व्याप्त कुंठा घुटन ,हताशा और निराशा समर में भी दृष्टव्य है ।दृष्टव्य है समर अकेला रहना चाहता है" मुझे दुनिया में किसी से कोई मतलब नहीं, कोई मेरा सगा नहीं ------अब मैं केवल अपने तक ही रहूंगा केवल पडूंगा ।" समर के मन में पिता के प्रति विद्रोह का भाव है। "जब पढ़ा और लिखा ही नहीं सकते ढंग से तो पैदा क्यों किया था।" समर अपने अस्तित्व बनाए रखने की कोशिश में अपने को असफल पाता है । समर कमाने के लिए मजबूर हो जाता है लेकिन नौकरी मिलने पर भी उसे नष्ट करती है आर्थिक समस्याओं से पीड़ित हो कर भी समर नौकरी कायम नहीं रखता है।  डॉक्टर शशीकला त्रिपाठी के शब्दों में -"समर शिक्षित और महत्वकांक्षी युवक है ।अपने भविष्य को खूबसूरत बनाने के लिए उसकी एकमात्र योजना अध्ययनशीलता ही है ।"  डॉ राधा गिरधारी कि राए में "सारा आकाश का समर आर्थिक संघर्षों से घिरा पात्र है ।जो केवल आत्म द्वंद की गुत्थियों को सुलझाने में जीवन भर लगा रहता है।"

समर का मानसिक अंतर्द्वंद स्वाभिमान और अहंकार उसे गृहस्थ सुख से वंचित कर देता है । जब पिताजी उसे घर से निकाल देते हैं । तब वह पूर्णत: विद्रोही हो उठता है । "मुझे खुद ही इस नरक में नहीं रहना । ना रात को चैन ना दिन को शांति ,सब मतलब के मां - बाप बने हैं।----- संभाल लेना अपना राजपाट।" इस प्रकार समर आत्मग्लानी ,अंतर्द्वंद ,विद्रोही भावना, स्वाभिमान, स्वार्थी मनोभाव आदि से ग्रस्त दिखता है । उनका चरित्र स्वतंत्र भारत की नई पीढ़ी के प्रतिनिधि के रुप में जीवंत हो उठा है।

 

शिरिष:

लेखक के निजी विचारों का आत्म-संप्रेषण शिरिष की विशेषता है। सारा आकाश उपन्यास के उत्तरार्ध में शिरिष का समावेश हुआ है। हर विषय के प्रति शिरिष का स्वतंत्र दृष्टिकोण है शिरिष को दर्शन, ब्रह्मज्ञान भारतीय संस्कृति जैसी बातों से नफरत है । हंसी उड़ाते हुए शिरिष बताते हैं -"संसार झूठ है ,माया है और ब्रह्म के अंश है और आप के मां -बाप, भाई -बहन ,पत्नी, पुत्र सब माया है। बदले में आप उनके लिए माया हैं। इसलिए इन सारे माया के बंधनों को तोड़ दो तो आत्मज्ञान होगा । भागकर हिमालय की गुफाओं में चले जाओ तो यह सब अपने आप ही छूट जाएंगे ।" जीवन के सारे उत्तरदायित्व से मुंह मोड़ कर अपने स्वार्थ के लिए जीवन गुजारने वाली नई पीढ़ी की मन:स्थिति शिरिष  के शब्दों में दृष्टव्य है। उनका विचार पलायनवाद के पक्ष में नहीं है। शिरिष स्वातंत्रोत्तर, प्रगतिशील युवा पीढ़ी का संवाहक प्रतीत होता है ।उनके अनुसार जो करना है उससे भागना नहीं। वे अपना दायित्व को निभाने के पक्ष में है। कर्तव्य को निभाना वह अपना परम धर्म मानता है। जिंदगी का जो सच सामने है उसका साहस से सामना करने के लिए वह कटिबद्ध दिखता है।

शिरिष संयुक्त परिवार के पक्षपाती नहीं है। वे संयुक्त परिवार को व्यक्ति विकास में बाधक मानते हैं उनके मत में "संयुक्त परिवार अभिशाप बन जाता है वहां जहां कई संताने हों, आर्थिक रुप से परिवार समर्थ न हो और आय के साधन बहुत ही कम हो।"  शिरिष का यह कथन संयुक्त परिवार की विसंगति का परिचायक है । समर को परेशानियों से बचने के लिए घर से अलग रहने का उपदेश भी शिरिष देता है । इस प्रकार उपन्यास की गति बनाए रखने में शिरिष का योगदान महत्वपूर्ण है

सारा आकाश:मध्यवर्गीय परिवार की समस्याएँ

भारत में प्राचीन काल से संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित थी ,लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संयुक्त परिवार में बिखराव आने लगा । यह बिखराव मध्यवर्गीय परिवार में ज्यादा विद्यमान है । मध्यवर्गीय परिवार की मूल समस्या तो पारिवारिक विघटन से संबंधित है। इस विघटन का माहौल यादव जी के "सारा आकाश" में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। विघटन का मूल कारण तो अर्थाभाव ही है ।डॉक्टर शशीकला त्रिपाठी के शब्दों में "व्यक्ति के व्यक्तित्व पर सबसे अधिक अंकुश अर्थ कारक से ही लगता है। यह सर्वानुभूत सच ही सारा आकाश का कथ्य है ।"

मानव जीवन के सारे रिश्ते धन दौलत पर निर्भर हैं । सारा आकाश में अनुस्यूत रुप से पारिवारिक समस्याएं दिखाई देती है। परिवार में 9 व्यक्ति हैं इन 9 व्यक्तियों का जीविकोपार्जन धीरज के ₹90 वेतन और पिता की ₹25 की पेंशन से होता है।बाबूजी समर को काम करके परिवार की आर्थिक प्रश्नों में सहायता देने की बात कहे तो इसमें अस्वाभाविकता कुछ भी नहीं । बाबूजी की बातें न मान कर पढ़ाई जारी रखने के इच्छुक बेरोजगार पुत्र के प्रति कोप उत्पन्न होना सहज है ।  समर के विवाह के पहले दिनों से घर में मनमुटाव शुरू होता है। मध्यवर्गीय परिवार में संतानों के व्यक्तिगत इच्छा-अनिच्छा को मान्यता नहीं दी जाती है । माता पिता की इच्छा ही उनकी इच्छा होती है । परिणाम स्वरूप मध्य वर्गीय परिवारों में नव युवक युवतियों या युवतियां विवाह के संदर्भ में व्यक्तिगत निर्णय लेने को मजबूर हो जाते हैं । समर और प्रभा को इस स्थिति से गुजरना पड़ा ।फलत: समर बाबूजी के विरुद्ध आवाज उठाते हैं । वहां से संबंधों में शैथिल्य का अविर्भाव होता है । जब बाबूजी आगे पढ़ाई करने के लिए आर्थिक स्थिति की मजबूरी की बात कहते हैं तो समर मन ही मन सोचते हैं-"  जब पढ़ा और लिखा ही नहीं सकते ढंग से तो पैदा क्यों किया था ।" समर का परिवार के प्रति विद्रोही भाव यहां दृष्टव्य है । समर को अपने और प्रभा के साथ-साथ मां-बाप और भाइयों के प्रति भी अपना दायित्व निभाना है । यह उन्हें बार-बार छोटी-छोटी नौकरी करने के लिए प्रेरित करता है । पढ़ना और कुछ बनना उसका ध्येय है । परिवारिक विघटन के और भी कई कारण होते हैं । सुशिक्षित बहू का सिर पर पल्ला ना रखना , हाथ में घड़ी बांध कर भोजन बनाना छत पर जाकर ताजी हवा लेना,बड़ी बहु की अपेक्षा सुंदर होना आदि बातें प्रभा को परिवार के अन्य सदस्यों से अलगाते हैं। रुढ़ीवादी सास-ससुर प्रभा से अपेक्षित दहेज ना लाने की बात पर नाराज हैं। इसलिए उसके प्रति सहज व्यवहार नहीं हो पाते ।

मध्यवर्गीय परिवार में सुशिक्षित नारियां भी अपने उत्तरदायित्व से भाग नहीं सकती। इसका ज्वलंत प्रमाण है -प्रभा। प्रात: काल 3:00 बजे से उठकर रात में 12:00 बजे तक वह चूल्हे चौकी में काम करती रहती है लेकिन उसके बारे में कोई नहीं सोचता कि उसने कुछ खाया है या नहीं । उसे पहनने के लिए कुछ है या नहीं । सब उन पर कठोर और रुक्ष व्यवहार करते हैं । सबक केंद्रित हैं, अपने में लीन हैं । ऐसे पारिवारिक वातावरण में संबंध हीनता पनपने लगती है ।

संयुक्त परिवार के वातावरण में व्यक्ति का संपूर्ण विकास नहीं होता। उन्हें दूसरों के लिए जीना पड़ता है शिरिष का कथन इसका स्पष्ट प्रमाण है ।" संयुक्त परिवार का शाब्दिक आदर्श चाहे जितना महान हो उसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि परिवार का कोई भी सदस्य अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाता । सहारा समय या तो समस्याएं बनाने में या बनी बनाई समस्याओं को सुलझाने में जाता है लड़ाई ,झगड़ा ,खींचतान, बदला ग्लानि सब मिलकर वातावरण ऐसा विषैला और दमघोंटू बना रहता है कि आप सांस न ले सके।"

समर को नौकरी मिलने पर उसके प्रति सब का व्यवहार नरम हो गया लेकिन नौकरी छूट जाने की बात जानते ही बाबूजी उसे घर से निकाल देते हैं। वे कहते हैं -"विदा करो दोनों को हमारे ये कोई नहीं लगते।" यहां परिवार के विघटन की चरम सीमा दर्शनीय है। शिरिष ने तो पहले ही समर से कहा था कि "इस संयुक्त परिवार की परंपरा को तोड़ना ही होगा । अब आपके लिए ही कहूं कि अगर आप खुद जिंदा रहना चाहते हैं या चाहते हैं कि आपकी पत्नी भी जिंदा रहे तो इसके सिवा कोई रास्ता नहीं है कि अलग रहिये, जैसे भी हो अलग रहिये।" पहले बेकार समर यह नहीं कर सकते थे। अब घर से निकालने के बाद उसके आगे शून्य( ०) भविष्य मंडराने लगा । वह घर के दमघोटू वातावरण से प्रभा को लेकर बचना तो चाहता था  लेकिन बच नहीं पाता था ।

मध्यवर्गी परिवार के विघटन का एक और कारण यह भी है कि परिवार के मां बाप पुत्र के विवाह उपरांत भी एक प्रकार का अनुशासन कायम रखने में मजबूर कर देते हैं । पुत्र को मां-बाप के अनुसरण करने के साथ-साथ पत्नी के प्रति कर्तव्य निर्वाह भी करना है। माता पिता अपने और बेटे बहू के संबंधों में संतुलन बनाए रखने की अपेक्षा उसे मानसिक रूप से विचलित होने के लिए बाध्य कर देते हैं । परिणाम स्वरुप वह समस्त पारिवारिक उत्तरदायित्व और निजी जीवन की मधुरता के रसास्वादन के बीच लटकता रह जाता है परिवार  विघटित होने के लिए अन्य कारण ढूंढने की आवश्यकता नहीं।
सारा आकाश विघटन की ही कहानी है और उपन्यास में कहीं भी रूप रस की शहनाई नहीं बजती । व्यक्ति की स्वतंत्र चेतना, स्वतंत्र विकास स्वप्न, महत्वकांक्षा या अपनी अस्मिता की पहचान आदि का दुष्परिणाम पारिवारिक विघटन में निखर उठता है । यादव जी ने अपने उपन्यास में स्वतंत्र भारत के मध्य वर्गीय समाज की समस्याओं का अंकन सफलतापूर्वक किया है। पारिवारिक विघटन ,नारी मन का संघर्ष मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियां ,राजनीति ,पूंजीवादी व्यवस्था, रूढ़ियों की जकड़ , युगीन परिवेश, प्रेम और विवाह की समस्याएं , प्रगतिवादी चिंतन ,सामाजिकता, अर्थाभाव ,बेरोजगारी आदि तथ्यों को यादव जी के उपन्यास में शब्द मिले हैं। मध्यवर्गीय चेतना को पाठकीय संवेदना में मिलाना उनकी रचनाओं का लक्ष्य रहा । मध्यवर्गीय समाज की समस्याओं के प्रणयन के जरिए यादव जी उन समस्याओं को सुलझाने की प्रेरणा भी देते हैं।

सारा आकाश: नारी

परंपरा से भारतीय नारी पुरुष की अर्धांगिनी और अनुगामिनी मात्र थी। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नारी जीवन को नया परिचय मिला । हिंदी उपन्यासों में सामान्यतः पुरुष के व्यक्तित्व से प्रभावित नारी पात्रों की बहुलता है। यादव जी नारी संबंधी प्रगतिशील विचारधारा के पक्षपाती दिखते हैं। उनके उपन्यासों में नारी अपना पृथक अस्तित्व बनाए रखते नजर आते हैं । स्वतंत्र भारत में नारी की स्थिति बेहतर हुई है । लेकिन यादव जी के "सारा आकाश" की प्रभा और मुन्नी की हालत गिरी हुई है। इससे पता चलता है कि भारत में नारी विशेषकर बहू आज भी शोषण और उत्पीड़न का जहर पी रही है । पुरानी पीढ़ी के लोग पढ़ी लिखी बहू लाने में हिचकते हैं। प्रभा का शिक्षित होना सास को खटकता है, भाभी को भी खटकता है। घर के सदस्य उन्हें इस बात पर डाँटते हैं कि "आग लगे ऐसी पढ़ाई में ।पढ़ाई अपने लिए होगी कि दूसरे की जान लेने को होगी।" प्रभा का चरित्र नारी स्वावलंबन की भावना से प्रेरित है । लेकिन शादी के बाद अपना जीवन चूल्हा चक्की में बंद करने के लिये तो मजबूर हो जाती है । समर जब उसकी पढ़ाई की बात कहते हैं तो अपना सारा क्षोभ वह इस प्रकार बहा देती है कि "इस पढ़ने-लिखने को कहां ले जाऊं? मां बाप ने पढ़ा दिया तो क्या करूं? जो कुछ पहले पढा लिखा था ,सब तो भूला दिया। किसी को घर मेंआज तक पढने - लिखने का घमंड दिखाया?" पति-पत्नी संबंध की शिथिलता यहाँ से शुरू होती है।

 

औरत ही औरत के खिलाफ शत्रुता का भाव प्रकट करती है। अपनी समव्यस्क पीढी या भावी पीढ़ी का शोषण करना उसकी आदत बन गई। उसने जो कुछ झेला है, सहा है ,भला दूसरी औरत उससे मुक्ति क्यों पाये? अपने शोषण का प्रतिकार करने में असमर्थ स्त्री अपनी ही जाति के शोषण करने पर तुली हैं । भाभी का कथन इसका परिचायक है - "औरत को जब तक दबाकर नहीं रखा जाता हाथ नहीं आती ।" भाभी सुंदर सुशील सुशिक्षित प्रभा से जलती है। वह प्रभाव को छोटी बनने का उपदेश देती है -"माफी मांग लो ऐसी बातों से क्या फायदा, तुम ही छोटी बन जाओ ।" प्रभा की दयनीय स्थिति का कारण खासतौर पर सास और भाभी है। सास दहेज ना मिलने से नाराज है । भाभी उसकी शिक्षा और सुंदरता को अपनी मानहानि का कारण समझती है। वह समर का कान भरती है। सुबह 3:00 बजे से रात 12:00 बजे तक प्रभा घर के काम में लीन है। लेकिन उसके बारे में कोई नहीं सोचता । समर उससे एक नगण्य प्राणी की तरफ व्यवहार करते हैं । केवल मुन्नी ही प्रभा पर सहानुभूति का बर्ताव करती है। मुन्नी की जिंदगी में जो त्रासदी हुई बहुत दर्दनाक है । उसका पति और ससुर उस पर अत्याचार करते हैं और अमानवीय व्यवहार करते हैं । प्रभा को तो एक साल बाद पति का प्यार मिला लेकिन मुन्नी पति के प्यार से वंचित है। ऊपर से एक रखेल तक को झेलती है। प्रतिरोध करने पर उसे बेंत के मार मिलते हैं । मायके आने के बाद वह फिर उस नर्क में जाना नहीं चाहता चाहती लेकिन लोकलाज की बात कहकर मां-बाप उसे पति के साथ जाने में या जाने के लिए मजबूर करते हैं । फिर उसका मर जाने का खबर आता है । मुन्नी के साथ जो अत्याचार होता है उससे अम्मा तो व्यथित है लेकिन अपनी बहू से वह अमानवीय व्यवहार करने से हिचकती है ।

प्रभा तो परिवार में अपना स्थान बनाए रखने की कोशिश करती है । वह सुशिक्षित होकर भी पति के आत्मनिर्भर होने पर और ज्यादा पढ़ लिख कर नौकरी करने पर बल देना चाहती है। प्रभा तो दिलेर और साहसी नारी है । एक मध्यवर्गीय परिवार में नारी केवल शासित होने का एक कारण है उपकरण है । अपनी वेदना को अकेले ही सहन करती हुई जीवनभर ससुराल के अनेक सदस्यों द्वारा प्रताड़ित और तिरस्कृत होकर भी मुक बनी रहती है ।पत्नीत्व के अधिकार से वंचित पति के सम्मुख लांछित होती हुई व्यंग बाणों से छलनी कर दी जाती है । किंतु विरोध नहीं कर सकती ।

सारा आकाश में शोषक और शोषित दोनों वर्ग की नारियां हैं । अम्मा और भाभी शोषक है प्रभा और मुन्नी शोषित। शिक्षित होने से प्रभाव उनके विरुद्ध आवाज उठाने में सक्षम है । लेकिन मुन्नी तो अनपढ़ है इसलिए प्रतिक्रिया नहीं करती। अगर पढ़ी लिखी होती तो कोई काम करके अपने पैरों पर खड़ी हो जाती या हो सकती थी । मध्यवर्गीय परिवार में लड़के शिक्षित होते हैं/थे।  लड़कियों को पढ़ाना नहीं चाहते थे इसका मूल कारण अर्थाभाव ही है । नारी शिक्षित हो या अशिक्षित घर का देखभाल करना उसका दायित्व ही है।

उन्हें अमानवीय व्यवहार भी भुगतना पड़ता है । मध्यवर्गीय नारी की इतनी दर्दनाक स्थिति है कि काम करके मर जाए फिर भी उसके साथ नर्म व्यवहार नहीं होते । पति अगर बेकार भी है तो कहे क्या ? सारा आकाश में जब समर को नौकरी मिलती है तो परिवार वालों का व्यवहार प्रभा के प्रति भी बदल जाता है नारी हमेशा अपने पति पर निर्भर रहकर अपने व्यक्तित्व को दबाकर जीने के लिए विवश है ,बाध्य है अपनी इच्छाओं और सपनों को हवा में उठाकर नारी को पुरुष की छाया बनकर रहना पड़ता है । प्रभा इसका  ज्वलंत प्रमाण है।

 

संक्षेप में.....

प्रथम भाग

पूर्वाद्‌र्ध: साँझ  बिना उत्तर वाली दस दिशाएँ

 

एक


उपन्यास का प्रारम्भ समर की सुहागरात के दिन से होता है। घर में चारों ओर उल्लास का माहौल है। इसी समय ज्ञात होता है कि सामने वाले घर में साँवल की बहू ने मिट्‌टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली है। समर व्यथित होकर थका सा सबसे छिप-छिपाकर मंदिर की ओर जा रहा है। वह सोचता है -"मुझे इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि मुझे कुछ बनना है।" वह सोचता है कि भारत महापुरुषों का देश है। महाराणा प्रताप तथा शिवाजी का रक्त उसकी धमनियों में बह रहा है। उसके दिमाग में विवाह की बातें, बारातियों का व्यवहार, बारातियों का शराब के नशे में चूर होना, दहेज में कम सामान तथा नकदी मिलने के कारण ठाकुर साहब का क्रोध होना गूँज रहा था। समर नारी को प्रगति में बाधक मानता है। उसकी आकांक्षा एम०ए० करने की है किन्तु उसके पूर्व ही उसके पैर में शादी की बेड़ी डाल दी गई है। वह नारी को मोह, माया और अंधकार मानता है। नारी देवत्व की ओर उठते मनुष्यत्व को बाँधकर राक्षसत्व के गहरे अंधे कुओं में डाल देती है। समर निश्चय करता है कि वह इस कमजोरी के सामने झुकेगा नहीं। वह अपनी पत्नी प्रभा से बिल्कुल नहीं बोलेगा या केवल काम भर की बात करेगा।

दो

समर तथा प्रभा के मिलन की मधुर रात आती है। भाभी ढकेलकर समर को कमरे में बंद करती है। वह समझता है कि कमरे में प्रवेश करते ही उसकी पत्नी प्रभा लाज से सिकुड़ जाएगी परन्तु ऐसा नहीं हुआ। प्रभा खिड़की के पास ही खड़ी रही। 

समर प्रभा के व्यवहार से अपमानित महसूस करते हुए कमरे से बाहर निकल जाता है। समर के मन में कुछ कर दिखाने की प्रतिशोधमूलक भावना उमड़ने लगी।वह रातभर रोता और सोचता रहा।

 

तीन


दूसरे दिन घर में यह खबर फैल जाती है कि समर ने रात में अपनी पत्नी प्रभा से बात नहीं की। भाभी के पूछने पर समर कहता है कि वह प्रभा का घमंड नहीं सह सकता। भाभी आग में घी का काम करते हुए कहती है कि प्रभा को अपनी सुंदरता और पढ़ाई का घमंड है। समर निश्चय करता है कि वह प्रभा से नहीं बोलेगा और खूब पढ़ेगा। दूसरे दिन प्रभा विवाह के उपरांत पहली बार खाना बनाती है। समर को मनाकर खिलाने की व्यवस्था की जाती है। परन्तु जैसे ही समर पहला कौर मुँह में डालता है, थाली को ठोकर मारता हुआ रसोईघरबाहर निकल जाता है और कहता है कि दाल में नमक नहीं ज़हर पड़ा है।दूसरे दिन प्रभा के भाई आते हैं और प्रभा मायके चली जाती है। घर का वातावरण पहले जैसा हो जाता है।
 



चार


समर के माता-पिता को बड़ा दुख हुआ कि विवाह के माध्यम से आर्थिक दृष्टि से कोई लाभ नहीं हुआ। घर में आर्थिक तंगी की वजह से लड़ाई-झगड़े होने लगे। माता-पिता चाहते थे कि समर नौकरी कर ले ताकि बड़े भाई धीरज को घर- खर्च चलाने में थोड़ी आसानी हो जाए। भाभी समर को प्रभा के विषय में भड़काती है।  विवाह, परिवार के प्रति आक्रोश, पत्नी के प्रति अरुचि, परीक्षा की चिंता आदि ने समर के सपने को चूर-चूर कर दिया था और वह कुंठित हो गया था। पहले घर से भागकर वह मंदिर जाता था लेकिन पुजारी जी का पंजाबी शरणार्थी के प्रति अमानवीय व्यवहार देखकर 
अब वह मंदिर भी नहीं जाता है।


 

पाँच


घर में अम्मा और जेठानी प्रभा से असंतुष्ट हैं। अम्मा को मनचाही रकम शादी में न मिलने का गुस्सा है तो दूसरी ओर भाभी इस कारण प्रभा से नाराज़ हैं कि वह उससे अधिक पढ़ी-लिखी तथा रूपवती है। मुन्नी का झुकाव प्रभा की ओर है क्योंकि वह भी पीड़ित नारी है। वह प्रभा के दर्द को महसूस कर सकती है। एक दिन खाना परोसते समय मुन्नी ने समर से पूछा कि क्या वह वास्तव में भाभी से नहीं बोला था  और क्या समर दूसरी शादी करना चाहता है ? मुन्नी समर को कुछ कहना चाहती थी कि भाभी वहाँ आ जाती है। वह समर से बात करने लगती है। प्रभा की बुराई सुनते-सुनते समर अब थककर कॉलेज चला जाता है। समर मन में सोचता है

कि प्रभा कितनी घमंडी है, उसे मायके गए छह महीने बीत गए हैं परन्तु उसने एक भी पत्र नहीं लिखा। उसके साथ यह ज़िन्दगी कैसे कटेगी।

 

 

छह


 प्रभा मायके से लौट आई। समर का मन प्रभा के प्रति कोमल हो उठा। अमर से ज्ञात होता है कि समर के ससुराल वाले उसकी प्रशंसा कर रहे थे। रात को लालटेन जलाकर पढ़ने का दिखावा करके वह प्रभा की प्रतीक्षा में बैठा है। इस बीच प्रभा तथा भाभी की बात सुनाई पड़ती है। "जबरदस्ती वहीं कहाँ सो जाऊँ ? मुझसे तो नहीं होता जिठानीजी, कि कोई दुत्कारता रहे और पूँछ हिलाते रहो, ठोकर मारता रहे और तलुए चाटते रहो। उनके बोर्ड के इम्तिहान हैं मैं क्यों तंग करूँ ? इसे सुनकर समर निर्णय करता है कि वह प्रभा से कभी संबंध नहीं रखेगा। रात भर समर कूढ़ता रहा, उसकी क्रोधाग्नि, कुंठा, विरक्ति भावना सुलगती रही।  दूसरे दिन समर प्रभा के लिए अलग कमरा देने की बात करता है परन्तु घर में अलग कमरा हो तो दिया जाए।
 


सात



दूसरे दिन समर भाभी के सामने अपनी रात्रि-कालीन क्रोधाग्नि को व्यक्त करता है। भाभी ने नमक-मिर्च लगाकर प्रभा की बुराइयाँ की। अब समर प्रभा से प्रतिशोध लेने के उपाय सोचने लगा। उसने भाभी से कह दिया कि प्रभा को घर के कामों में समय देना चाहिए। इसी बीच भाभी ने एक बच्ची को जन्म दिया। घर में सबके मुख पर फीकी प्रसन्नता दिखाई पड़ी। गृहस्थी कार्य का समस्त भार प्रभा के ऊपर आ पड़ा। प्रभा बिना कुछ कहे यन्त्रवत सुबह से लेकर देर रात तक सारा काम करती है। पहले प्रभा को कार्य करते देखकर समर को तृप्ति मिलती है लेकिन बाद में उसे व्याकुलता की अनुभूति होती है। 

प्रभा परदा नहीं करती है जिसे लेकर घर में हंगामा मचा करता है। बच्ची के नामकरण के दिन मिट्‌टी के गणेश को ढेला समझकर प्रभा ने फेंक दिया। घर में बड़ा हंगामा मच गया। समर गुस्से में आकर प्रभा को ज़ोरदार तरीके से तमाचा जड़ देता है। 
 


आठ

 

प्रभा को तमाचा मारकर समर पश्चापात की आग में जलता रहा। यद्‌यपि वह प्रभा के प्रति उदासीन रहने का प्रयास करता तथापि उसकी स्थिति देखकर उसका हृदय पसीज जाता। समर परीक्षा को लेकर अत्यंत चितिंत रहता। एक दिन भाभी की बच्ची का दूध न जाने कैसे गिर गया, घर में हंगामा खड़ा हो गया। प्रभा को खूब सुनाया गया , परन्तु समर पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। जाड़े के दिनों में प्रभा थोड़े से कपड़ों में अपनी ज़िन्दगी काट रही है। उधर समर की परीक्षा सिर पर आ गई। प्रभा अंदर ही अंदर सूखती जाती है, उसका सौन्दर्य झुलसता जाता है। एक दिन प्रभा खुली छत पर सिर धो लेती है। इसको लेकर घर में पहाड़ खड़ा हो जाता है। 


 

नौ


समर की परीक्षा समाप्त हो जाती है। वह अपने मित्र दिवाकर के साथ सिनेमा देखने का कार्यक्रम बनाता है। घर लौटने पर पता चलता है कि मुन्नी के पतिदेव उसे विदा कराने आए हुए हैं। मुन्नी जाना नहीं चाहती है, माँ भी नहीं भेजना चाहती है परन्तु ठाकुर साहब चाहते हैं कि वह अपने पति के साथ चली जाए। अगली सुबह मुन्नी को विदा कर दिया जाता है। जाते समय मुन्नी समर से कहती है - " भैया, भाभी से बोलना, उन्होंने कुछ भी नहीं किया..."।

दस

रात में समर दिवाकर के घर खाना खाकर लगभग ११ बजे रात को घर लौटा। मन में अनेक चिंताएँ उठ रही थीं। घर वाले चाहते थे कि समर कुछ कमाए। उसे प्यास लगी थी। देखा कमरे में पानी नहीं था। पानी के लिए वह छत पर गया तो देखा कि एक कोने में बैठी प्रभा रो रही है। पानी पीकर समर कमरे में आया परन्तु उसकी नींद तो उड़ गई थी। अन्तद्‌र्वंद्‌व की स्थिति में वह पुन: प्रभा के पास आया और कहा -" आधी रात को यहाँ बैठकर क्या कर रही हो ?" इतना सुनकर प्रभा फफक पड़ी। खंडित स्वर में समर बोला -" प्रभा तुम मुझसे नाराज़ हो।" प्रभा की रुलाई और अधिक बढ़ गई। दोनों एक-दूसरे से लिपट कर रात भर रोते रहे। सुबह हो जाती है। प्रभा कहती है -" हमें एक पोस्टकार्ड  दे दीजिए, मैं बहुत दिनों से माँ को लिखना चाह रही थी-पैसे नहीं थे।" और धोती के पल्ले से आँखें पोंछती वह बाहर चली गई।

उत्तराद्‌र्ध: सुबह  

प्रश्न पीड़ित दस दिशाएँ

एक

समर के जीवन में सुखद परिवर्तन आता है। मारे प्रसन्नता के वह दिवाकर के यहाँ जा पहुँचा। कुछ देर तक परीक्षा परिणाम, नौकरी, आगे की पढ़ाई आदि की चर्चा करके वह चार-पाँच पोस्ट कार्ड लेकर घर लौट आता है। जब समर खाना खाने बैठा तो प्रभा की फटी धोतियाँ देखकर उससे खाया नहीं गया। थाली सरकाकर वह उठा तो प्रभा ने कहा - " क्यों?" समर बहाना बनाकर बाहर आ गया। यह बात पूरे घर में फैल गई कि दोनों अब तो आपस में बोलने लगे। अम्मा समर से कहती है कि बाबूजी को नवलकिशोर पंडित जी की बैठक से बुला ला ताकि वे भी गरम-गरम खा लें। नवलकिशोर जी की पत्नी समर को देखते ही कहती हैं - "कौन? समर? अरे बेटा, तूने तो आना-जाना ही छोड़ दिया। इम्तिहान हो गए? बड़ा अच्छा हुआ बेटा! अरे हाँ, हमने सुना, तू अपनी बहू से बोलता नहीं था, अब बोलने लगा है।" समर जिधर जाता यही बात सुनने को मिलती है।

दो

रात को समर और प्रभा के बीच बातचीत होती है और अनेक रहस्य खुलते हैं। समर को प्रभा का सानिध्य अच्छा और रोमांचक लगता है। बातचीत में भाभी का ईर्ष्यालु स्वभाव, पति-पत्नी के बीच की कटुता की बातें खुलकर हुई। दोनों के मन में जमी मैल दूर हुई। प्रभा अपने संजोये सपनों को समर के सामने रखा और समर ने प्रभा के सामने बातों में अपने भविष्य के इरादों को रखा और उसकी सलाह माँगी।

तीन

एक दिन समर ने प्रभा की फटी धोती देखकर पहले भाभी फिर माँ से एक धोती माँगी। माँ बिगड़ गई। उसके पिता ने यहाँ तक कहा कि कमाने-धमाने को कौड़ी नहीं और बहू की तरफ़दारी को शेर! शरम नहीं आती! थू है इस बेहयाई पर! यह बात समर के मन को चुभ गई। वह नौकरी ढूँढ़ने निकल पड़ा। रोजगार दफ़्तर के सामने एक अपरिचित ने बताया कि आज वहाँ भर्ती हो रही है। दस बढ़ई, पचास मज़दूर और तीन क्लर्कों की आवश्यकता थी। उस अपरिचित साहब ने बताया कि देश के नेताओं को शर्म नहीं आती है जो कहते हैं कि अब भारत स्वतंत्र है। उसके निर्माण के लिए इंजीनियर, डॉक्टर, मशीन चलाने वाले लोग और वैज्ञानिक चाहिए। सच तो यह है कि उन्हें किसी की ज़रूरत नहीं है। उन्हें तो बस अपनी कोठियों की क्यारी हरी-भरी रखने के लिए माली चाहिए तथा गाड़ी चलाने के लिए ड्राइवर। दोपहर बाद समर जब घर पहुँचा तो खाने की बात पर प्रभा की ओर से एक सुखद उलाहना भी मिला। उसी समय समर ने प्रभा की सहेली रमा का पत्र भी पढ़ा जिसमें प्रभा के सपनों के टूटने का पीड़ादायी दर्द था। रात में समर ने पुन: दोहराया कि चाहे जो भी हो जाए वह एम० ए० जरूर करेगा।

 

 चार

दूसरे दिन दिवाकर के यहाँ जाने पर समर पाता है कि जिस सज्जन व्यक्ति से उसकी मुलाकात रोज़गार कार्यालय में हुई थी, वह दिवाकर के घर पर मौजूद हैं। उनका नाम शिरीष है और वे दिवाकर के चचेरे भाई हैं। वे वहाँ अपनी बहन का इलाज करवाने आए हैं। शिरीष प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति हैं। देश की वर्तमान दशा, नेताओं की स्वार्थपरता, जनता का अंधविश्वास, रूढ़िवादी हिन्दू धर्म, आध्यात्मिक शांति का ढोंग आदि विषयों पर समर और दिवाकर के बीच गरमा-गरम बहस होती है। शिरीष के तर्कों तथा शब्दों में तीखापन है तथा स्पष्टवादिता उनकी विशेषता है। समर को पहली बार अहसास हुआ कि उसका ज्ञान कितना कम और कच्चा है, उसके सोचने का तरीका अनुभव रहित है। समर दिवाकर से कहता है कि उसके लिए नौकरी की कोई व्यवस्था कर दे ताकि वह आगे की पढ़ाई भी कर सके और घर की आर्थिक मदद भी।

पाँच

दिवाकर के घर से वापस आकर समर पार्क में जाकर चुपचाप बैठ गया। उसे अपना घर नरक के समान प्रतीत होता है। घर पर अमर रोटी खाते समय प्रभा से घी माँगता है। प्रभा के कहने पर की घी खत्म हो गया है, अमर ने उलाहना दिया कि सारा घी तो समर भैया को खिला देती  हो। इस बात पर समर अमर को डाँटता है और उसकी पीठ पर लात मारता है। अम्मा ने सुना तो समर को खूब बुरा-भला कहा। समर प्रभा का पक्ष लेते हुए कहता है कि भाभी रानी है और प्रभा दासी। भाभी ने प्रतिक्रिया में अपनी बच्ची को चारपाई पर पटका और खुद रोटी बनाने लगी। समर घर से निकलकर पार्क में चला गया। उसी समय उसे उसने देखा कि दरोगा जी ने अपने प्यारे घोड़े को गोली मार दी क्योंकि वह बीमार था और दर्द से तड़प रहा था।  समर देर रात  घर लौटा। प्रभा ने खाना नहीं खाया था और वह समर की प्रतीक्षा कर रही थी।

छह

समर को दिवाकर ने अपने पिताजी के दोस्त की प्रेस में नौकरी दिला दी थी। उसे सबेरे पाँच बजे से ग्यारह बजे तक प्रूफ़-रीडिंग का कार्य करना था। तनख्वाह 75 रुपए थी। समर ने दिवाकर से बीस रुपए उधार माँगे ताकि वह प्रभा के लिए नई धोती खरीद सके। दिवाकर के घर से लौटते समय दरवाज़े पर शिरीष भाई से मुलाकात हुई। उनदोनों में भारतीय संस्कृति की सर्वश्रेष्ठता पर चर्चा होने लगी। समर ने प्रभा के लिए धोती खरीदी लेकिन संकोचवश अम्मा को दे दी ताकि अम्मा खुद ही प्रभा को दे दें लेकिन कुँवर के यह बताने पर कि समर ने धोती प्रभा के लिए खरीदी है, अम्मा ने प्रभा को देने के लिए समर को वापस लौटा दी।

प्रभा नौकरी मिलने की सूचना सुनकर अत्यंत प्रसन्न हो गई और दोनों सुखद और उज्ज्वल भविष्य की कल्पना में खो गए।

सात

समर के नौकरी की बात सुनते ही घर के सभी लोग समर तथा प्रभा के प्रति उदार हो जाते हैं। समर ज्यादा प्रसन्न नहीं था क्योंकि उसके लिए पचहत्तर रुपए बहुत कम और खर्चे बहुत ज्यादा। समर नौकरी पर जाने लगता है। इसके लिए प्रभा को सुबह जल्दी उठना पड़ता है। समर बिना टिकट यात्रा करके प्रेस पहुँच जाता है। आरंभ में समर को प्रूफ़-रीडिंग का काम अरुचिकर लगता है। फिर धीरे-धीरे वह उसी में अभ्यस्त हो जाता है। परीक्षा का परिणाम आ जाता है और समर सेकेंड डिवीजन में पास हो जाता है किन्तु अमर फेल हो जाता है। समर कॉलेज में दाखिला लेकर घरवालों का कोप-भाजन बनता है। प्रभा पर बहुत बोझ पड़ने लगता है। समर चाहता है कि प्रभा उसके लिए रात में ही खाना बनाकर रख दिया करे। परन्तु प्रभा को यह स्वीकार नहीं था। वह उसे ताज़ा खाना बनाकर देती है।

आठ

एक दिन शाम को जब समर घर पहुँचा तो पता चला कि अमर के विवाह की बातें चल रही हैं और एक बार समर के मामा ही मध्यस्थ थे। उसने अमर के विवाह का विरोध किया। ठाकुर साहब समर पर उबल पड़े। प्रभा के माध्यम से समर को पता चला कि घर में समर की तनख्वाह की बात चल रही है। समर ने बताया कि प्रेस मैनेजर ने अभी तक तनख्वाह नहीं दिए हैं। समर दुखी होकर बाहर टहलने निकल पड़ता है। सड़क पर उसकी मुलाकात दिवाकर और शिरीष भाई से होती है। समर अपनी समस्या उनलोगों के सामने रखी। शिरीष भाई संयुक्त परिवार व्यवस्था का विरोध करते हैं और समर को अपनी पत्नी के साथ अलग रहने की सलाह देते हैं। समर अनिश्चय की स्थिति में बना रहता है।

नौ

उसी रात एक और घटना घटी। समर छत पर लेटा हुआ शिरीष के सुझावों पर चिन्तन कर रहा था। इसी बीच प्रभा सज-धज कर वहाँ आती है और समर के पैर दबाने लगती है। बात-बात में प्रभा ने बताया कि उसने आज व्रत रखा है। इस पर समर क्रोधित हो जाता है लेकिन प्रभा के रोने पर उसका मन द्रवित हो उठता है। दोनों सो जाते हैं। रात के डेढ़ बजे भाभी की बच्ची के रोने पर दोनों उठ जाते हैं। समर प्रभा से शिरीष के विषय में बात करने लगता है किन्तु प्रभा समर की बातें सुनते-सुनते सो जाती है। जब प्रभा को जगाने के लिए समर उसे गुदगुदी देता है तब उसके हाथ में प्रभा के कमर में बँधी एक सुपारी आ जाती है। प्रभा डरकर बताती है यह ताबीज़ समर की माँ ने बाँझपन दूर करने के लिए दिया है। समर फिर क्रोधित हो जाता है और एक झटके से ताबीज़ को तोड़कर गली में फेंक देता है। प्रभा रोती है।

दस

समर ने प्रभा से क्षमा माँगी। उसने प्रभा को बताया कि उसकी नौकरी छूट गई। इसे सुनकर प्रभा चौंक पड़ी। अम्मा ने प्रभा को नीचे चूड़ियाँ पहनने के लिए बुलाया। समर ने प्रभा को मना किया। भाभी और अम्मा की जिद पर प्रभा को विवश होकर चूड़ियाँ पहननी पड़ी। समर ने क्रोध में आकर प्रभा की दोनों कलाइयाँ पकड़ कर आपस में बजा दी। कुछ टुकड़े समर के हाथों में तथा प्रभा की कलाई में चुभ गए।

जब रात में ठाकुर साहब ने समर से तनख्वाह के विषय में पूछा तो समर ने बताया कि उसकी नौकरी छूट गई। समर और ठाकुर साहब में बहस शुरू हो गई और ठाकुर साहब ने क्रोध में आकर समर की पिटाई कर दी। समर ने घर छोड़ देने की कसम खाई। प्रभा ने समर को सुबह चार बजे जगाया और उसे प्रेस जाने की याद दिलाई। समर को घर छोड़ने की बात याद आई। वह नीचे उतरा रहा था कि उसी समय उसे तार मिला कि मुन्नी मर गई। इसी बीच बड़े भाई साहब और पिताजी भी बाहर आए। उनके हाथ में तार देकर समर वहाँ से चला गया। ट्रेन से उतरने के बाद उसके मन में विचार उठने लगे। 

"कूद पड़...चढ़ जा...कूद पड़...चढ़ जा...! उसने घबराकर ऊपर देखा...सारा आकाश डग-डग करता घूमने लगा था।"

("संक्षेप में."....- भाई आनंद  से साभार लिया गया है)

सारा आकाश-राजेंद्र यादव (सारांश)

राजेंद्र यादव प्रेमचंदोत्तर कालीन उपन्यासकारों की पीढ़ी में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं ।प्रेमचंदोत्तर काल में हिंदी उपन्यास कई दिशाओं में विकसित हुआ है ।राजेंद्र और इलाचंद्र जोशी ने मुख्यत: मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास लिखें हैं ।वृंदावन लाल ने मुख्यत: ऐतिहासिक उपन्यास लिखें ,यशपाल और चतुरसेन शास्त्री ने भी कुछ उपन्यास लिखें हैं ,जिन्हें ऐतिहासिक- सांस्कृतिक उपन्यास कहा जा सकता है ।प्रयुक्त उपन्यासकारों के पश्चात लेखकों की जो नई पीढ़ी उभरी उसने जन जीवन में आने -जाने वाले बिखराव को चित्रित किया है। इन उपन्यासकारों की कृतियों में घटनाओं तथा चरित्र -चित्रण का प्राय: समान महत्व होता है अर्थात उनमें ना तो जासूसी -अय्यारी उपन्यासों की तरह घटनाओं की योजना पर विशेष बल दिया जाता है और न मनोविश्लेषणात्मक उपन्यासों की भांति कथावस्तु की उपेक्षा करते हुए पात्रों के चरित्र चित्रण पर विशेष जोर दिया जाता है उनके उपन्यासों में जीवन की सामान्य घटनाओं को मनोविश्लेषणात्मक या मनोविश्लेषण की परिप्रेक्ष में इस रुप में प्रस्तुत किया जाता है कि निपुणता स्वभाविक प्रतीत होने लगती है ।

 

राजेंद्र यादव का प्रस्तुत उपन्यास "सारा आकाश" भी ऐसा ही है जिसमें एक असामान्य सी घटना या अपसामान्य सी घटना जिसे हम 'अबनॉर्मल इंसिडेंट 'भी कह सकते हैं -को बड़े ही स्वाभाविक रूप से चित्रित करने का प्रयास किया गया है ।मुख्य घटना मात्र इस तथ्य पर आधारित है कि विवाह की प्रथम रात्रि को नवविवाहित युवक समर और नववधू प्रभा एक दूसरे से इस तथ्य की अपेक्षा करते रहते हैं कि उनमें से दूसरा साथी उनसे पहले बात करने की चेष्टा करेगा ।प्रभा की दुखी मन: स्थिति तथा समर के अहंकार के कारण थोड़ी देर तक कोई भी पात्र एक दूसरे से नहीं बोलता और यह अबोलेपन की गांठ लंबे समय तक लगी रहती है । उपन्यासकार का तो कहना है कि जिस वास्तविक घटना के आधार पर इस उपन्यास की रचना की गई है उसके पात्र 9 साल तक एक दूसरे से नहीं बोले थे। हां पर मूल रूप से ही ऐसे काम अवश्य करते थे जिससे बाहरी लोगों को उनके बीच चलने वाले अबोलेपन का ज्ञान नहीं हो पाता था । उपन्यासकार की धारणा है कि जब तक भारत में लड़के -लड़कियों का विवाह कराने के मूल में मां -बाप का स्थान ही प्रधान होगा तब तक ऐसी स्थितियां आने की संभावना सदैव बनी रहेगी ।  उपन्यास की कथावस्तु संक्षेप में आगे दी जा रही है।

 

कथावस्तु का आरंभ समर के निम्नांकित आत्म चिंतन के माध्यम से हुआ है जिससे इस तथ्य का उद्घाटन होता है कि आज उसकी विवाह की प्रथम सुहाग रात्रि है तथा वह इस विवाह से प्रसन्न नहीं है। वह मंदिर में बैठा सोचता है -'आज सारा संसार जान गया है कि इस लड़के की सुहागरात है ।देश को साहसी और कर्मठ युवकों की जरूरत है -का नारा देने वाला यह युवक भी अब चौपाया हो गया है ।कोई विश्वास करेगा कि जो आंधी -पानी में भी नहीं रुका वही समर आज 2 हफ्तों से शाखा नहीं गया है ।अपने ही साथियों से आंख चुराता घूम रहा है कि इस समय वह मेहमानों दोस्तों परिचित-अपरिचित सभी की अंगुली उठाती आंखों से बचता बचाता  गलियों गलियों मंदिर की ओर चला जा रहा है। वही तो एक जगह है जहां बैठकर कुछ क्षण शांति से इतने बड़े परिवर्तन पर सोचेगा रात को देर से लौटेगा जब तक यह हल्ला-गुल्ला शांत हो जाएगा ।लेकिन स्वर पीछा कर रहे हैं -'भागो भागो इस जंगल से दूर भागो मेरे भीतर कोई लगातार रट लगाए चले जा रहा था ।शादी से पहले तो वह मात्र इतना ही कर पाता था कि -मेरे पाऊं में चक्की मत बांधो ।उसमें भागने का साहस नहीं था अब इसी बात का उसे पश्चाताप हो रहा था ।उसने अपनी डायरी में लिखा था -मैं इतनी जल्दी हिम्मत क्यों हार जाता हूं ,अभी से क्यों सोचता हूं कि मेरी सारी महत्वकांक्षाओं मर गई सोने को आग में भी तपना  पड़ता है तभी तो वह कुंदन की तरह निकलता है ।सभी के जीवन में परीक्षा के क्षण आते हैं यह मेरी अग्नि -परीक्षा का क्षण है ।भगवान ने यह बाधाएं हमारी शक्तियों को मांजते रहने के लिए रखी हैं ।हां ,हम इन्हीं बाधाओं और मुसीबतों पर पांव रखकर आगे बढ़ेंगे ।मैं आज भी दृढ़ हूं- अाजन्म ब्रम्हचारी रहने की प्रतिज्ञा पर ।किंतु समर अब तो इस मोहनी माया जाल में फंस चुका है उसकी मन:स्थिति मकडी के जाल में फंसे मच्छर के समान है जो ना तो उससे बाहर निकल सकता है और ना ही वह फंसना चाहता है ।ऐसी स्थिति में कभी वह सोचता है कि प्रभा को वह वापस उसके घर भेज देगा तो कभी सोचता है कि प्रभा बहुत पढ़ी लिखी तथा समझदार है उसे अपने दृष्टिकोण से भी समझाया जा सकता है ।जो कुछ भी है "आज परीक्षा का सबसे कठिन पेपर है ।आज अगर फिसल गया तो संसार की कोई शक्ति मेरा उद्धार नहीं कर सकती और अगर आज ही निकल गया तो एक साथ सारे सिर दर्द से पीछा छूट जाएगा ।"

मैं अगर कमजोर हूं तो क्या हुआ भगवान मुझे इतनी शक्ति संयम और सुबुद्धि देगा कि जो मेरे साथ रह सके वह रहे पीछे छूट जाने वाले के मोह में पडकर मुझे रुकना ना पड़े। समर की सुहागरात आई और चली गई वह प्रभा से बोला तक नहीं क्योंकि वह अपने आत्मविश्वास और दृढ़ता को एकत्रित करता रहा है ।मन ही मन वह दोहराता रहा है कि नारी अंधकार है नारी मोह है ,नारी माया है ,नारी देवत्व की ओर उठते मनुष्य को बांधकर राक्षसत्व की गहरे अंधे कुएं में डाल देती है ।नारी पुरुष की सबसे बड़ी कमजोरी है। उसकी डायरी से ज्ञात होता है कि उसने अपनी पत्नी से ना बोलने का निश्चय नहीं किया था ,हां यह अवश्य सोचा था कि मैं उसको यह समझा दूंगा -"देखिए हम लोग काफी समझदार हैं ।मां-बाप जैसे भी हैं या जो भी कर सकते हैं उन्होंने कर दिया। लेकिन अपना आगा-पीछा तो हमें ही देखना है ।सबसे पहले तो हमें अपनी शिक्षा पूरी करनी होगी ।"वह यह भी सोचता है -लेकिन यह सुन कर रोने लगी तो ।कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि उसके खारी आंसू मेरे दृढ़ता की सारी धरती को गला डालें-----नहीं नहीं नहीं ----भगवान बुद्ध को यशोधरा का सौंदर्य बांधकर नहीं रख पाया। गोपियों के प्यार ने कृष्ण को योगिराज बनने से नहीं रोका।"

समर इस पक्ष के दूसरे पहलू के विषय में भी सोचता है कि नारी मनुष्य की प्रगति में सदैव बाधा ही नहीं हुआ करती है। "अच्छा क्यों जी ,पत्नी क्या सदैव ही बाधा होती है ?राम की शक्ति को क्या सीता से अलग किया जा सकता है राजपूताने की क्षत्राणियों ने क्या स्वयं ही अपने सुहागों को रण में नहीं भेज दिया था।"

किंतु इस विचार पर उसकी आस्था दृढ नहीं रह पाती क्योंकि वह स्वयम् को कमजोर मानता है ।वह सोचता है कि जब तक मुझमें अपेक्षित दृढ़ता नहीं आ जाती तब तक उपेक्षा मेरा अस्त्र होगी और उदासीनता मेरी ढाल। आंसू और वासनाओं के इस दलदल में काफी पांव जमा कर मुझे चलना होगा ।साक्षी रहे भगवान की मूर्ति ।वह भगवान से प्रार्थना करने लगता है कि हे भगवान मुझे शक्ति दे संयम दे, तू बुद्धि दे कि मैं अपने आपको सही मार्ग पर ले चलूं और वह गुनगुनाने लगता है -वह शक्ति हमें दो दयानिधे कर्तव्य मार्ग पर डट जाएं ।

समर अपने सुहाग कक्ष में जाने से पूर्व इस प्रकार की भावनाओं में डूबा हुआ था कि मंदिर में भजन समाप्त होकर कीर्तन आरंभ हो गया ।

 

हार कर उसे घर लौटना पड़ा ।उसे ऐसा लगता था मानो एक तूफान किसी भारी गुंबद में बंद हो गया है और उसको बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा। डायरी पद्धति अपना कर लिखे गए इस उपन्यास में अपनी पिछली अर्थात सुहाग रात्रि वाली घटनाओं को याद करते हुए समर को स्मरण आता है कि उस रात जब भाभी ने उसे हल्के से धक्का देकर धीरे से किवाड़ बंद कर दिए थे तो वह उस कमरे में बंद हो गया था जिसमें नववधू प्रभा विद्यमान थी। उसने देखा था कि प्रभा जंगले में सिर रखे खड़ी है और कदाचित खड़े-खड़े ही सो गई है ।वह चुपके से जाकर पलंग पर बैठ गया था ।उसने सोच रखा था कि "चुपचाप जाकर पलंग पर सो जाऊंगा ----और सोने के बाद सुबह से पहले जागना मैंने जाना नहीं ।"

उसका दिल धड़क रहा था और उसको भी मित्र लड़के मूर्ख लग रहे थे जिन्होंने नारी को स्वर्ग का फूल बताया था ।उसकी इच्छा थी कि कम से कम वह अपनी पत्नी का मुंह तो देख ही ले वैसे उसकी मनोदशा यह थी कि पता नहीं नाक -नक्शा कैसा है ?आज सुहागरात है सब लोग छेड़ेंगे इसलिए यहां आ बैठा हूं ।जाने आज क्या-क्या करना होता है कैसे करना होता है ।

 

समर को यह देखकर आश्चर्य होता है कि प्रभा कपड़े तो दुल्हन जैसे ही रंग-बिरंगी पहने हुए हैं किंतु लजीली नववधू की तरह गठरी बनी नहीं बैठी हुई है और उसका स्वागत करने के लिए जंगले से चलकर पलंग की ओर नहीं आई है ।समय समय को संदेह हुआ कि कहीं प्रभा सो तो नहीं गई है किंतु बात ऐसी नहीं थी क्योंकि समर के पलंग पर बैठते ही उसने जरा सा सिर हटाकर देखा था और फिर अपना सिर जंगले पर ही रख लिया था।

to be continued......

ISC PUPIL PERFORMANCE - 2017

http://www.cisce.org/pdf/pupilperformanceISC/2017/2.%20Hindi%20ISC-17.pdf

ANALYSIS OF PUPIL PERFORMANCE – ISC

http://www.cisce.org/PupilPerformanceISC.aspx#DivAnalysisOfPupilPerformance2016

सारा आकाश-राजेंद्र यादव

सारा आकाश वर्तमान युवा पीढ़ी की त्रासदी है। लेखा-जोखा है निम्न मध्यवर्गीय शिक्षित युवा के संघर्ष का और उनके भविष्य का नक्शा भी है।  अपनी आशाओं,आकांक्षाओं, सांसारिक सीमाओं के बीच चलते द्वंद्व, हारने-थकने और कोई रास्ता निकालने को बेचैन युवा,परिस्थितियों से लड़ता-जूझता परिस्थितियों से ठोकरे भी खाता है ।

समर और प्रभा के बीच की संवादहीनता उनके पति-पत्नी होने पर प्रश्न ही खड़ा करती है । संयुक्त परिवार के कितने ही रिवाज-लिहाज उनके संबंधों पर बोझ की तरह हावी है। सारा आकाश नापने को बेचैन, हर हाथ में बेड़ियां हैं, पैरों में जंजीर और हर दरवाजा बंद । इसी घुटन में टूटता है- युवा का तन-मन और सपना । फिर वह क्या करें -पलायन ,आत्महत्या या आत्मसमर्पण । ऐसी ही उलझनों को सुलझाने का प्रयास है -सारा आकाश

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